हिंदी कहानी: मीनू - Hindi Story On Women Empowerment

यूँ मैं कहानीकार नहीं हूँ, पर कभी - कभी जेहन के किसी हिस्से में कुछ अटक सा जाता है, जिसे शब्द देना जरुरी हो जाता है| यह कहानी भी ऐसे ही किसी लम्हे में लिखी गयी थी | वैसे कहानी मूलतः लॉकडाउन के दौरान लिखी गयी थी पर प्रकाशित होने का सौभाग्य अब पायी है| 

ये घटना वास्तविक है या फिर सिर्फ मेरे दिमाग की उपज, उसे जानना जरूरी नहीं है| जरुरी है कि भावनाओं की अभिव्यक्ति ठीक तरीके से हो गयी हो और पढ़ने वाला कहानी के मूल को समझे| 

  अब मैं इस प्रयास में सफल हुआ या नहीं, यह फैसला करना आपका काम है| तो कहानी का मज़ा लीजिये और हो सके तो टिप्पणी कर के बताइये कि कहानी आप को कैसी लगी? 

हिंदी कहानी: मीनू

हिंदी कहानी: मीनू 

गांव हमेशा वैसे नही होते जैसा कि उन्हें कहानियों और कवियों की कल्पनाओं में वर्णित किया जाता है। झूमते पेड़ों और अम्बियों की खुशबू के साथ - साथ बजबजाती इंसानी सोच और झीने कपड़े से अपनी इज़्ज़त बचाता नारी स्वाभिमान, गांव सच में अद्वितीय हैं।

  मीनू उर्फ मीनल कुमारी ऐसे ही एक गांव की अल्हड़ किशोरी थी। माँ-बाप और मीनू का छोटा सा परिवार जिसका एक और सदस्य उस कुत्ते को माना जा सकता था जो कि अक्सर मीनू के साथ ही दिखता था और गांव वाले उसे 'मज़ाक' में मीनू के बाप की औलाद बताया करते। तेरह साल की किशोरी जो गंवई खेलों जैसे लंगड़ी, गुट्टा और गेंद तड़ी में हमारे मुहल्ले की चैंपियन मानी जाती थी। टीम बनाते वक़्त हम सबकी कोशिश होती कि मीनू हमारी तरफ से खेले। मीनू का टीम में होना लगभग जीत सुनिश्चित करने जैसा ही था। 

   गाँव में लड़कियों की घर से बाहर खेलने की उम्र अनकही पर निर्धारित होती है,लगभग 8-10 साल। मीनू उस उम्र को पार करने के बावजूद बाहर खेलती थी तो गांव वालों का व्यंग कसना तो स्वाभाविक ही था। किसी भी बाहर खेलती लड़की को "मीनू" कहकर व्यंग कर दिया जाता। मीनू अब लड़की से ज्यादा निर्लज्जता का उदाहरण बन गयी थी। चौदह साल की किशोरी, गांव के इस वातावरण को समझने जितना परिपक्व नही थी।

    किशोरावस्था बड़ी अजीब सी उम्र होती है। हर किशोर अपने बदलते हुए शरीर और विपरीत लिंग के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी जुटाना चाहता है और मीनू कोई अपवाद नहीं थी। मीनू का शरीर भी अब विकसित होने लगा था। साल गुजरते गुजरते उसका सलोनापन और बढ़ जाता, हाँ पर उसका अल्हड़पन जस का तस रहता।

    जब भी मीनू से पूछा जाता कि-

    "बड़े होकर क्या बनोगी?"

    "पुलिस", वह हर बार चहक कर जवाब देती।

    वास्तव में उसका शरीर भी उसकी इस बात का पुरजोर समर्थन करता। भरा पूरा कद और चपलता उसके भविष्य के "पुलिस" बनने की वकालत करते नज़र आते।

    मगर समाज व्यक्ति के सपने नही देखता, बल्कि बस वह देखता है जोकि वास्तव में देखना चाहता है। गांव की भाभियों, चाचियों और उनके पति परमेश्वरों में मीनू के  "पुलिस" बनने को लेकर अक्सर भद्दे मज़ाक चलते रहते।

    "ये जिस थाने में जाएगी, वहाँ के पुलिस वालों की मौज रहेगी। ऊपर से लेकर नीचे तक, मीनू सबै खुश कर देगी।"

   एक कहावत है "अबरा के मौगी गांव भर के भौजी"  मतलब कमजोर की औरत, गांव भर की भाभी होती है। गांव अब पूरी लगन से इस लोकोक्ति को चरित्रार्थ कर रहा था।

    बहरहाल समय पंख लगाकर अपने ही अंदाज़ में उड़ता रहा। मैं आगे पढ़ने के लिये होस्टल चला आया और गांव के सारे किस्से-कहानियां गांव में ही छूट गए पर छुटियों में घर जाने पर गांव में घटे किस्से कि कब किसने फांसी लगाई, किसकी लड़की भाग गयी,किसका लड़का बंगाल से लड़की खरीद के शादी कर लिया आदि-आदि मुझे चाहे अनचाहे मिलते ही रहते।

     ऐसे ही एक बार मुझे बताया गया कि मीनू की मां को कैंसर हो गया था और इलाज़ की कमी से उनकी मौत हो गयी थी।

     अगली बार आने पर पता लगा की मीनू के बाप गांव छोड़कर अपनी ससुराल में रहने लगे थे।

     बहरहाल ऐसी  ही एक छुट्टियों में मुझे गांव के लड़कों ने मोबाइल में कुछ फ़ोटो दिखाए। यह वो दौर था जब जिओ ने डेटा सेवाओं को बेहद सस्ते दामों पर उतारा था। टेलीकॉम सेक्टर ध्वस्त था और देश का युवा मनोरंजन में डूब गया था। जिस इंटरनेट को विलासिता की वस्तु माना जाता था, अब वो विदेशी बालाओं को इठलाते हुए नीली स्क्रीन पर देखने भर का ज़रिया मात्र रह गया था। फ़ोटो बेशक मीनू के ही थे और उनसे छेड़छाड़ भी नही की गयी थी। एक में वो गांव के ही एक लड़के के साथ मंदिर में शादी करती नज़र आ रही थी और बचे हुओं में उनके निजी प्रेमालाप के दृश्य थे।पूरा गांव उन फ़ोटो को हसरत और मज़े के लिए देख रहा था। लोग एक दूसरे से मानो इशारो में कह रहे हों

    "देख लो, हमने तो पहले ही कहा था।"

    मीनू की इज़्ज़त को हर कोई अपने अंदाज और ताक़त से उछाल रहा था। गांव की चौपालों पर बैठने वाले बड़े बूढ़े जो मीनू के बाप या दादा के उमर के होंगे, मन में चटकारे लेकर घंटों इस मुद्दे पर चर्चा करते और देश के दुर्भाग्य एवम  इंटरनेट युग के दुष्परिणामों का रोना रोते। कोई युवाओं में बढ़ती सेक्स की भूख पर चिंता व्यक्त करता तो कोई कोई बिना मां की बच्ची से सहानुभूति प्रकट करता।

    मेरा इस घटना पर कोई वश नहीं था।हर बार की तरह मैं वापस होस्टल लौट आया और इस वाकये को लगभग भूल ही गया।

    दो तीन साल ऐसे ही बीत गए।अब तक मैं भी काफी बड़ा हो गया था। स्कूल से निकलकर कॉलेज में पढ़ने लगा था। एक छुट्टियों में जब मैं घर गया तो अनायास ही मां से पूछ बैठा।

"मां मीनू कहाँ है अब?"

    अरे बेटा उसकी तो शादी हो गयी है।

    किससे?

    मां ने पूरी बात बतायी।

    " मीनू की फ़ोटो जिसके संग आयी थी,तुम्हें याद है?

    हाँ

     उससे मीनू ने मंदिर में शादी कर ली थी। वो लड़का भी सही था लेकिन मीनू की चचेरी बहन अपने देवर से मीनू की शादी कराना चाह रही थी। अपनी भाभी के कहने पर देवर ने उस लड़के से दोस्ती गांठी और पता नहीं कैसे फ़ोटो निकाल लिए और उन्हें गांव भर में फैला दिया। अब उस लड़के से मीनू की शादी कोई कानूनन तो थी नही ,न ही उस लड़के ने समाज के डर से आगे आने की कोशिश की तो लोक लाज का भय दिखाके, और मीनू के बाप पर जोर डालकर बिना दहेज के मीनू की शादी उसी देवर से करा दी गयी जिसने फ़ोटो बांटे थे।"

    गांव वाले कुछ नही बोले?

     गांव वालों के बोलने का कोई मतलब ही नहीं था। वो तो उनके परिवार का मामला था।

     और मीनू के ताऊ?

     वे क्यों  बोलेंगे? वो तो पहले से ही यही चाह रहे थे और अब उन लोगों के जाने के बाद तो उन्हें यहां का खेत मिल भी गया है।

     अब मीनू कहाँ है?

     वहीं है,अपने पति के पास।अब तो उसके एक लड़की भी है।

    उसने पुलिस की नौकरी के लिए कुछ नहीं किया?

    शादी हो गयी। बाल बच्चा हो गया। अब उसे नौकरी कौन करने देगा सो भी पुलिस की। पागल हुए हो क्या?

    

    मेरा मन छुब्ध हो गया। गांव की गलीज राजनीति कैसे किसी के सपने और भावनाओं को चकना चूर करती है, मैं उसका साक्षी बन रहा था। एक "मीनू" नहीं, बल्कि हज़ारों " मीनुएँ" इसी नाली में रहकर अपनी भावनाओं को मात्र तेरह-चौदह साल पर ही अलविदा कह देती है। रह जाती है तो बच्चा पैदा करने की एक मशीन और केवल खाना कपड़ा लेकर काम करने वाला एक नौकर। शहरों में स्त्री सम्मान और संवेदनाओं पर बड़े-बड़े भाषण देने वाले तथाकथित नारीवादी लोग असलियत में नारी की दशा को नहीं जानते हैं। भारत के मध्य और निचले तबके  की अधिकांश स्त्रियां दरअसल "मीनू" ही हैं जो नहीं जानती कि अपनी मर्ज़ी का जीवन जीना कैसा होता है। सोशल मीडिया पर नारी की दशा को शब्दों में बांधने की कोशिश करने वाले दरअसल जानते ही नहीं हैं कि नौकरों की तरह पूरे दिन काम करने वाली औरतों को अथक काम करने के बाद भी बिना मर्ज़ी के बहुत कुछ करना पड़ता है।

   माँ से कुछ भी कहना बेकार था। वो सच कह रही थीं। मैं बाहर गली में चला आया जहां नुक्कड़ पर कुछ बच्चे खेल रहे थे।लड़के लड़कियां दोनों। कोई एक पैर पर खेल जाने वाला खेल जिसमे कूदते हुए जमीन पर बने कुछ खाने पार करने पड़ते हैं। मैं बैठ गया और देखने लगा। एक लड़की को अपनी तरफ लेने के लिए दो पक्ष लड़ रहे थे। मन के किसी कोने में कहीं कोई हौले से बुदबुदाया।

   "देखो इसे। हो सकता है कि ये अगली मीनू हो।"

   कौन जाने, शायद सच भी हो। गांव अंदर ही अंदर क्या सोच रहा हो,कोई नहीं बता सकता।और बता भी दे तब भी, मुझे कुछ करने का हक़ नहीं है। आखिर वो कोई मेरे "परिवार" की थोड़े ही है।

   शाम की ठंडी हवा धीरे-धीरे बहने लगी और अम्बियों की खुशबू वाला सुंदर-सलोना गांव अपने आगोश में कई राज़ समेटे कुछ और लड़कियों को "मीनू" बनाने की तैयारी करने लगा।

                                                                                                                    - श्रेयस दुबे

2 Comments

  1. Congratulations my dear writer😊
    I loved the presentation of village theme.
    I already have concern about it,
    but from now i got a more strength from your like thinking.
    👍👍👏👏

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